बेवर खेती यानी ज़मीन जोते बिना उसमें 56 तरह के पारंपरिक बीजों के सहारे खेती.
मौसम की मार से दूर इस खेती से हर हाल में इतनी तो उपज हो ही जाती है कि गुज़ारा चल जाए.
आधुनिक तरीक़े से की जाने वाली खेती में फ़सलें भले एक बार धोखा दे दें, पर बेवर खेती कभी भूखा नहीं रहने देती.
मध्यप्रदेश के डिंडौरी ज़िले के बैगाचक इलाक़े में नान्हूं रठूरिया से अगर आप बेवर खेती के बारे में पूछें, तो वह बिना रुके आपको ऐसे कई कारण बता सकते हैं, जिससे आप खेती के इस तरीक़े से सहमत हो जाएंगे.
नान्हूं रठुरिया बताते हैं, “हम खेत जोतते नहीं हैं. छोटी-बड़ी झाड़ियों को जलाया और फिर आग ठंडी होने पर वहीं ज़मीन पर कम से कम 16 अलग-अलग तरह के अनाज, दलहन और सब्जियों के बीज लगा दिए. इनमें वो बीज हैं, जो अधिक बारिश हुई तो भी उग जाएंगे और कम बारिश हुई तो भी फ़सल की गारंटी है. इस खेती में न खाद की ज़रूरत होती है और न महंगे कीटनाशकों की.”
घने जंगलों में रहने वाले इन गांवों में मौसम विभाग की भविष्यवाणी नहीं पहुँचतीं. गांव में घुर्घूटी कीड़ा निकले, तो मान लें कि इस साल खूब बारिश होगी. ऐसे में उन बीजों की मात्रा बढ़ा दी जाती है, जो अधिक बारिश में भी खूब फ़सल दें.
इसी तरह मौसम को जानने-समझने के कई पारंपरिक तरीक़े चलन में हैं, जो कभी ग़लत नहीं साबित होते. इसके अलावा ये आदिवासी मौसम आधारित पारंपरिक कंद-मूल तो लगाते ही हैं.
ये वो कंद-मूल हैं, जिन्हें खाकर पर्याप्त पोषण तो मिलता ही है, तरह-तरह की बीमारियों से भी छुटकारा मिलता है.
सिलपिड़ी गांव की सोमारी बाई कहती हैं, “किसी को बुखार हो जाए या पेटदर्द हो तो हम कड़ूगीठ कांदा या बेचांदीकांदा खाकर इन बीमारियों से लड़ लेते हैं. किसी को बिच्छू ने काट लिया तो रबीकांदा पीसकर लगा दें. कैसा भी ज़हर हो, उतर जाएगा. महिला का प्रसव हो तो डोनची कांदा खिलाना अनिवार्य है. इस कांदा को खाकर प्रसूता दूसरे दिन से काम पर लौट जाती है.”